Tuesday, July 24, 2012

Aur uss bhai ki padhai adhuri hi reh gayi.....

अपने स्कूल के वक़्त जब भी मैंने इम्तिहान में कोई भी निबंध चुना या तो वो दहेज़ प्रथा या फिर प्रदुषण जैसे सामाजिक विषय हुआ करते थे. लेकिन कॉलम में अगर दहेज़ प्रथा है तो मेरा चुनाव हमेशा से दहेज़ प्रथा ही रहा है। क्यूँ ? ये मैं भी नहीं जानती. धीरे धीरे बड़ी होती गयी और इस दौरान कॉलेज ज्वाइन करने तक दहेज़ प्रथा एक मुसीबत, अन्धकार, घरों को उजाड़ने वाला परिवार को बिखेरने वाला एक नासूर बन चुका था. अखबारों में पढ़ पढ़कर, अपने रिश्तेदारों के मुंह से सुन सुनकर और अपने ही खानदान की बेटियों को वृद्ध होते देखती रही क्यूंकि कहीं न कहीं वे भी दहेज़ देने में सक्षम जो नहीं थीं। दहेज़ नहीं मिला तो बहु, बेटियों को ताने देना, जला देना, या फिर पति पत्नी के बीच मुटाव  पैदा कराना. इतना अत्याचार देखकर दहेज़ प्रथा मेरा नहीं मैं उसकी दुश्मन बन गयी. उस वक़्त एक कहावत अक्सर सुना करती थी, औरत ही औरत की दुश्मन होती है. इस वाक्य का अर्थ मुझे आज समझ आया है। जब मैं एक बेटे  की माँ को अपनी बहु से दहेज़ की मांग करते देखती व् सुनती हूँ तब समझ आता है की औरत ही औरत की दुशमन है। पहले तो मैं यही सोचती रही कि  ये दहेज़ नाम का नासूर केवल उत्तर भारत में ही बुरी तरह फैला है। जिसकी वजह लालच व् अशिक्षा को माना जा सकता है। लेकिन मेरा ये भ्रम जल्दी ही दूर हो गया जब मैं दक्षिण भारत पहुंची। वही दक्षिण भारत ( केरल राज्य ) जो पुरे भारत में हर साल शिक्षा के प्रतिशत में अव्वल नम्बर होने पर सरकार से अवार्ड पाता रहा है. और आज दहेज़ मांगने वालों का इतना दुस्साहस देखकर नही लगता की ये राज्ये शिक्षित है? यहाँ पर दहेज़ प्रथा की कुछ अलग व् अनोखी ही कहानी है। उत्तर भारत में दहेज़ के नाम पर सूई से लेकर कार तक देने की प्रथा है और यहाँ पर दहेज़ के नाम पर स्वर्ण दिया जाता है। गरीब पिता भी 50 तोले से ऊपर देने की भरपूर कोशिश करता है चाहे उसे जीवन भर क़र्ज़ में बिताना पड़े. वजह यहाँ पर लड़के वाले खुद अपने मुंह से दहेज़ बनाम स्वर्ण मांगते हैं। कोई 50 तोला, कोई 101, तो कोई 10 लाख तक. आप और हम यूँ कह सकते हैं कि जिस माता पिता का बेटा जितना ज्यादा पढ़ा लिखा या व्यापारी होगा वो अपने बेटे की उतनी ही ऊंची बोली लगाएगा. ताजुब ये है कि ये सब उन्ही कट्टरपंथियों की नाक के नीचे होता है जो सीना पीट पीट कर खुद को पक्का सुच्चा मुसलमान होने की घोषणा करते हैं  और दूसरों को भी जबरन इसके लिए मजबूर करते हैं। जबकि धर्म वास्तव में जो कहता है उसका प्रचार प्रसार दूर तक भी नहीं दिखाई देता। जैसाकि  हुक्म है उस खुदा का की कोई फायेदा नहीं तेरा मंदिर व् मस्जिद में दान करने का, जबकि बंदा मेरा और पडोसी तेरा भूख से बिलबिला रहा हो. कोई फायेदा नहीं तेरा ख्वाजा की मज़ार पर फूलों की चादर चढ़ाकर, जबकि मेरा बंदा सड़क पर नंगा घूम रहा हो, कोई फायेदा नहीं तेरा ईद, दिवाली खुशियाँ मनाकर जबकि तुने इन खुशियों को किसी गरीब से साझा न किया हो। ठीक उसी तरह अभिनेता सलमान खान का वो वाक्य किसी ने क्या खूब लिखा है कि मस्जिद के सामने से चप्पल चोरी नहीं होते जिसे ज़रूरत होती है वो उठाकर ले जाता है। क्यूंकि चोर व् डकेत अपनी माँ  की कोख़ से चोर व् डकेत बनकर पैदा नहीं हुए थे। ज़रूरत, भूख ,लाचारी और अपने बच्चों की तरसती आँखे किसी को भी चोर व् डकेत बन्ने पर मजबूर क्र सकती हैं। भला कौन चोर व् डकेत की ज़िन्दगी जीना चाहेगा? आप और हमने इन लोगों ऐसा बनने पर मजबूर किया है। रिश्वत मांग मांगकर इनको भी रिश्वत खोर बना बना दिया, महंगाई बढाकर इनके मुंह का लुक्मा छीन लिया और लाखों रूपए दहेज़ मांगकर एक बाप की कमर की झुका दी। और तो और एक भाई की पढाई अधूरी रह गयी क्यूंकि उसे अपने ही जैसे किसी दुसरे भाई का मुंह दहेज़ से भरने के लिए आज से कमाई करने जो जाना था।

2 comments:

  1. dost aise na jana kitni bahbiya apni study complte nahi kar payi, becasue dowry system ne unka mann aur mind dono ko kisi ke liye majbor kare diya

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  2. Shukriya apka comment krne k liye..y sari haqiqat m sabhi k samne lana chahti hun..taaki un logon ki nigahein sharm se jhuk jayen..jinhone laxmi ko vaastav mein laxmi bna diya hai.

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